राष्ट्रवाद और प्रकृतिवाद में साम्यता हैं क्य़ा ?
मनुष्य जीतना सुसंस्कृत हुआ उतनी समस्याएं पैदा हो गई। मनुष्य की एकाकी सफर (आदिमानव वाली) सामुदायिक होती गई….साथ न जाने कितने वर्गभेद में बंटती गई। हमने ही समूह में जीना पसंद किया, हमने ही परिवार की संकल्पना आकारित की हैं। हमने राष्ट्र बनाकर सीमाओं के दायरे भी खींचे हैं। हमने ही पारस्परिक साथ वाला जीवन पसंद किया। एक दूसरें की संगत को रंगत भी हमने ही बनाया..! अनुराग में जीने का पागलपन ही मानवीय सभ्यता हैं। ईश्वर की प्रकृतिगत सृष्टि इसी कमाल को आगे बढाती हैं। हम सब ज्यादा सुसंस्कृत होने लगे और मानवीय सभ्यता की नई मिसाल खडी करने का प्रयास करने लगे। अच्छी बात हैं, समय की मांग पर आवश्यकता के अनुसार मनुष्य जीवन निर्भर करता हैं..!!
भारत की प्राचीन वेद परंपरा “वसुधैव कुटुंबकम” सारी पृथ्वी एक कुटुंब हैं ऐसा कहती हैं। जिज्ञासावश मेरे मन में एक सवाल हैं…की विश्व के कल्याण का भाव रखने वाली सनातन संस्कृति, वेद परंपरा में भेदभाव जैसा अनुसरण होगा क्या ? मैं तो भेदभाव शब्द की कल्पना भी नहीं कर सकता।
महान ईश्वर सबका हैं, वो सृजन का आधार हैं वो निर्मिति का कारण भी हैं। भारतवर्ष महान सभ्यता के रुप में इसी विशालतम विचारधारा से उभरता गया हैं। वेद प्रकृति के पुरस्कर्ता हैं। वेद संवेदना के भी पुरस्कर्ता हैं। वेद प्रकृति की जीवंतता से मनुष्य को जोडकर उम्मीद से भरा श्रद्धा और विश्वास से भरा निर्भिक जीवन प्रदान करने की बात करते हैं। ईस विचार में “राष्ट्रवाद” किस तरीके का आकारित होना चाहिए ये हमें ही सोचना चाहिए। फिर हम क्या वर्ताव करते हैं वो भी हमें ही सोचना हैं !! राष्ट्र के प्रति अहोभाव कभी न भूलें!
जिस समाज में धरती को माता माना जाता है, वृक्ष को पूज्य माना जाता है, नदियों को लोकमाता और पर्वतों को देवतुल्य माना जाता है, उस समाजका राष्ट्रवाद प्राकृतिक है।
जिस समाज में धरती को माता माना जाता है, वृक्षों को पूज्य माना जाता है, नदियों को लोकमाता, पर्वतों को देवतुल्य माना जाता है उस समाजका राष्ट्रवाद प्राकृतिक है।
ખુબ ઉત્તમ ચિંતન..! સ્વ થી સમષ્ટિ … સર્વનું ાંંગલ થાય એ વેદ ાન્ય ત્ય… આપ ંાંંક્ષિપ્ત મા આલેખી. ક્યા…ીિનંદન…!!
Tx for inspire to me.