There is a big difference between dreams and determination.
सपनें अनुभूति है, संकल्प एक यात्रा है।
भगवद्गीता के उद्घाता श्रीकृष्ण कहते हैं; परिवर्तन संसार का नियम हैं। प्रकृति इसका बेहतरीन उदारहण हैं। जल-वायु-पृथ्वी में भी बदलाव सहज हैं। जल-स्थल के सिद्धांत भी प्राकृतिक बदलाव से संपूर्ण झुडे हैं। ऋतुओं का ज़बरदस्त परिवर्तन तो हम सब अनुभूत करते हैं। प्रकृति हमें अनुभूति सिखाती हैं। सपनें अनुभूति का व्यापार हैं। हमारें सपने हमारी अनुभूति को संवेदना से भर देते हैं। ये भी एक प्रकृति का अदृश्य सिद्धांत हैं। जो सबके भीतर पलता हैं। जिसके बंधन में हम सब बंधे हैं युग-युगान्तर से…!
ये प्रकृति का एक मार्ग हैं। दूसरा मार्ग हैं..संकल्प !! अनुभूति के जरिए एक मुकाम तय होना चाहिए। ईश्वर मनुष्य जीवन को दिशा देना चाहते हैं। सबको अपनी गति तय करवाना चाहते हैं। सृष्टि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का कोई करतब करवाना चाहते हैं। इसीलिए हरेक मनुष्य को अपनी विचार यात्रा को हकीकत बनना हैं। सपनें इस यात्रा के बीज हैं। सपनें कुछ करनें की तलब देते हैं। इससे एक यात्रा शुरू होती हैं। व्यक्ति की यात्रा समष्टि के लिए…!
विश्व ऐसी कईं यात्राओं से संवृत हैं। इस संसार में कई लोग जन्म लेते हैं, अपने सपनें पालते हैं और निकल जाते हैं कोई अनंत यात्रा पर..! मगर उस यात्रा के सभी आयाम हमें दिखते हैं। सपनों को सोपान नहीं मगर संकल्प को निश्चित सोपान हैं।
कहाँ जाना है ?
कैसे जाना हैं ?
क्यों जाना हैं ?
ये कहाँ-कैसे और क्यों की समझदारी से भरी यात्रा हैं। जीवन अभाव और संवेदना की कुछ घड़ी पे सपनें संजोए लेता हैं, तब एक यात्रा तय हो जाती हैं। अपने मस्तिष्क पर पागलपन को सवार करते हुए…एक यात्रा निश्चित हो जाती हैं। कोई निकल पडता हैं, अपने भीतर संकल्प शक्ति का तेज भरकर..!
या एक ऐसी ज्योति को धारण करते हुए जो विश्व के एक कोनें में तेजोमय क्रांति को धारण करती हैं। संकल्प से क्या कुछ नहीं होता। एक बार किसी व्यक्ति ने अपने भीतर संकल्प को धारण कर लिया उसका मार्ग प्रशस्त हैंं ही। उस मार्ग में कोई अड़चनें पैदा करता है तो समष्टि का प्रकोप उसको निगल लेता हैं। संकल्पयात्रा में निकलने वालों के इतिहास लिखे जाते हैं अड़चने पैदा करनेवाले तो अगले सालतक भी नहीं चल पाते हैं।
“आनंदविश्व सहेलगाह” कुछ सपनों की बात थोडे संकल्प की बात रखकर खुश हैं। सत्वशील विचार, सर्वमान्य विचार या अपने भीतर सत्य की रणकार पैदा करने वालें विचार पर किसीका अधिकार नहीं होता। ये प्रकृति की आवाज बन जाती हैं। किसी के जरीए प्रकट होती हैं। शायद कोई विचार को एक निमित्त चाहिए होगा..!
अनादिकाल से ईश्वर का क्रम अक्षुण्ण रहा हैं। उनकी मर्ज़ी कब-कहां चले कहना नामुमकिन हैं। यहां कोई कैसा निमित बनें वो भी कहना मुनासिब नहीं हैं। ये मेरी शक्ति से बाहर की बातें हैं। मैं तो बस स्वीकार करना जानता हूँ…अलौकिक ईश्वर की दृश्यरूप आकृति ओर प्रवृत्ति बनकर !! एक वस्तुत: आकार बनें रहने का आनंद !!
आपका ThoughtBird. 🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav
Gandhinagar, Gujarat.
INDIA
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