My heart is now drunk on love, l find no need to speak.
मन मस्त हुआ फिर क्या बोले ?!
भारत के अद्भूत चरित्रों में से एक हैं कबीर..! संत कबीर, मैं पूरी अदब से उन्हें संत कहता हूँ। अब उनके जन्म, ज्ञाति-जाति, धर्म- व्यवसाय की बात करनी चाहिए। लेकिन मैं उस बात में पडनेवाला नहीं हूँ। क्योंकि मुझे कबीर कौन था ? में इन्टरेस्ट नहीं हैं। मुझे उस संत कबीर के द्वारा कही गई ‘आत्मज्ञान’ की बानी में इन्टररेस्ट हैं। कबीरजी को किसीने साहित्यकार समझा, समाज श्रेष्ठीओं ने सुधारक समझा,आत्म खोजी लोगों ने आत्मज्ञानी समझा। साधक वृत्ति के लोगो ने कबीरजी को साधक भी समझा हैं।
उनकी कठोरतम “पाषाणीबानी” उस समय के समाज में फैले पाखंड के लिए आवश्यक कदम था। जैसे स्वामी दयानंद सरस्वतीजी का “वेदों की ओर लौटो” का सामाजिक क्रांति का पैगाम था। बस, वैसे ही कबीरजी की कठोरतम भाषाने एक समर्पित वर्ग खडा किया हैं। आज भी ईस विचारपंथ को ‘कबीरपंथ’ के नाम से जाना जाता हैं।
कबीर का समग्र सृजन मनमस्ती हैं। भीतर की ख़ुशी हैं। जीवन ऐसा आनंद है जो कुछ भी बोलने के लिए या किसी का बूरा सोचने के लिए तैयार नहीं। “मन मस्त हुआ फिर क्या बोले ?” जैसे सवाल से ही कबीरजी मस्त हैं। ये कबीरजी का एक भजन हैं। उसमें कबीर जो बात रखते हैं वो लाजवाब हैं।
हीरा पाया बांध गठरियाँ,
बार-बार गांठ क्यों खोले ?
कबीरजी आत्मा को हीरा कहते हैं। I have found an Invaluable gem..! “मुझे एक अमूल्य रत्न मिल गया हैं और मैंने उसे सुरक्षित रुप से अपने भीतर बांध लिया हैं।” उसे बार-बार क्यों देखना हैं। हमें विश्वास होना चाहिए। उसकी मूल्यता पर कभी शंका न होनी चाहिए। जब मन शंका से मुक्त हो जाएगा तब निडरता के प्रति सहज प्रयाण होगा। दूसरी एक पंक्ति :
हंसा नावें मान सरोवर,
ताल-तलैया में क्यों डोले ?
Now why would it dwell in ponds and puddles ? बडा ही उँची गुणवता से भरा सवाल हैं। हम ईश्वर के बनायें हुए हैं, ईसी शक्यता में सब समाहित हैं। मानसरोवर के झील में मोती का चारा चरने वाला हंस कभी तालाब के कीचड का विचार ही नहीं करता। उसको पता हैं अपने खुद की अहमियत..! मुझे कैसे जीना हैं, मेरा क्या वजूद हैं, मेरी भी कुछ जिम्मेदारी हैं। हंस के प्रतिक से कबीरजी हमें जीवन का उद्देश्य बताते हैं। इससे जो जीवन की मस्ती मिलेगी शायद वो किसी कीमत पर नहीं मिल सकती। एक तरफ दूसरों की बुराई में भी, दूसरें को हल्का सोचने में भी जिंदगी बह जाती हैं। जीवन के सत्व को कलुषित करने का काम भी हम खुद ही करते हैं। नियंता की निर्मलता पर संदेह करना, यानी हमारे भीतर मलिनता को भरना..! कोई विचार को इतनी बेरहमी से मत पालें कि वो जीने न दे। आने वाली पीढ़ीओ को उसका भूकतान न करना पडे..!
मन को मस्त बनाना सहज हैं; सरल हैं। मनमस्त वाली बात सही हैं, लेकिन वो बात पर विश्वास नहीं आता। कबीर सहज होकर कहते हैं, अपना उद्धार खुद करना हैं, ये बात सबको पसंद आईं वो मुमकिन है ऐसा भी महसूस हुआ। संत कबीरजी ने मानसरोवर के हंसों की उपमा देकर मानव-जाति का बहुमूल्यन किया हैं। आपको लगता हैं तो कमेन्ट करें।
आपका, ThoughtBird 🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav
Gandhinagar,Gujarat
INDIA
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सही बात है मानव जात का बहुमूल्यांकन किया ।