Do anything at your own pace.
Life’s not a race.”
“जीवन दौड नहीं हैं, जो कुछ करो अपनी गति से करो।”
बचपन में एक कहानी सुनी थी, “खरगोश और कछुआ” सबने सुनी होगी। कई कहानीओं ने हमारा बचपन सँवारा हैं। जब छोटे थे तो प्राणी और पशुओंकी कहानियाँ ने हमें मधुर निंद दी। थोडी-बहुत हमारी जिज्ञासा तृप्त हुई। थोडी-बहुत कल्पनाशीलता को पंख मिले। तब कहानी मात्र आनंद के लिए सुनते थे। कहानी में जब प्राणी-पशु-पंखी आपस में बातें करते थे, वो सुनना अचंभित लगता था। उनके डायलोग्स हमें बहुत पसंद आते थे। कहानी के वर्णन अच्छे लगते थे। बस, फिर मिठी-सी निंद..!
अब सुनें बडें होने के बाद वाली कहानी की असर..! आपकी पुरानी यादें हलचल में आ गई !? नहीं आई तो पढना शुरु रखे..! आज बडे होने के बाद उस कहानी से ज्यादा मिलता हैं। जब वो कहानी फिर से याद आती हैं। थोडी कहानी…”एक दिन जंगल में खरगोश और कछुए के बीच दौडने की होड लगी। खरगोश को अपनी ताकत पे गुरुर था। कछुआ बिल्कुल शांत था, वो अपनी गति पर कायम रहनेवाला था। उनको रेस में या चैम्पियनशिप में कोई रस नहीं था। उनकी रेस अपने आपसे थी। वो शांत था, धीर था एवं गंभीर था। खरगोश के बहुत कहने पर कछुआ उनकी बात का मान रखता हैं। कभी-कभार जीतनेवाली की बात, उनके तेवर के सामने झुक जाना ही अच्छा हैं। खरगोश को अपनी दौडने की क्षमता पर गुरुर था। रेस शुरु हुई, कहानी अब नहीं कहता। परिणाम क्या आया सबको पता हैं।”
“जो कुछ करो अपनी गति से करो” कछुआ इस विचार की ताकत से जीतता हैं। उनकी गति ओरो के लिए बहुत ही मंद हैं। खरगोश के सामने कभी न टीकनेवाली हैसियत होने के बावजूद कुछ अचंभित होता हैं। बस, हमें उस अचंभित करने वाली घटना को कायम उस बच्चें की तरह अनुभूत करना हैं। उस समय बच्चें के मनमें जो हैरत थी, उसे हमेशा के लिए अपने दिलों-दिमाग में पालते रहना हैं। कहानी एक ही हैं। हमारी सोच बढती हैं। हमारी समझदारी बढती हैं। फिर-भी आज बच्चें की तरह ही कछुए की जीत का मजा लेना हैं।
आज भी कईं खरगोश हमें ललकारने या विचलित करने के लिए तैयार बैठे हैं। और सांप्रत तो स्पर्धा से ही भरा हैं। शिक्षा और व्यवसाय में तो बडी ही हलचल लगी पडी हैं। सब आगे निकाले जाने की फिकर में पडे हैं। इसमें अपनी गति, अपनी मति कहीं न कहीं गायब हैं। “मुझे भी ईश्वर ने कुछ गति दी हैं। मेरी भी एक छोटी-सी दौड इस संसार में स्थापित हैं। मैं उस प्रभु के द्वारा निर्मित हुआ छोटा-सा कछुआ हूँ।” शायद मुझे दौडना नहीं आता, मगर मेरी जो कुछ धीमी रफ्तार हैं, वो ही मेरी औक़ात हैं। उसे आप चलना भी कह सकते हैं, दौडना भी..!
जब हम कछुआ बन जाने की सोच रखेंगे तो, खरगोश हमारा कुछ बिगाड न पाएंगे। वो हमें जीताकर ही छोड़ेंगे। बस, हमारी कछुए की चाल पे एकदम भरोसा रखना हैं। मुझे जो कुछ गति या मति मिली हैं, उसमें ईश्वर की मर्ज़ी निहित हैं। मुझे वो चलायेगा तो चलेंगे, दौडायेगा तो दौडेंगे बस, यहीं विश्वास मन में कायम करना हैं। मानव जीवन में फलने-फूलने का अधिकार सबका हैं। धरती पर मौजूद सभी जीवों की अपनी-अपनी अहमियत हैं। सभी की क्षमताएं भी अलग-अलग हैं। सबकी आदतें भी अलग हैं। फिर भी स्वीकार करने की मानसिकता सबसे ऊपर हैं। जो मनुष्य इस स्वीकार वालें किरदार को निभाएगा वो सफल हैं। उसे हम जीतनेवाला कहते हैं, उसे दूसरों से बेहतरीन कहते हैं। विचार हमें ही करना हैं। लाइफ इज नोट अ रेस..!
मुझे कौन-से किरदार से जीवन को सम्यक बनाना हैं !?!
हां, मुझे कौन-सा जीवनमार्ग प्रशस्त करना हैं !?!
आपका ThoughtBird. 🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav.
Gandhinagar, Gujarat.
INDIA.
dr.brij59@gmail.com
+919428312234.
Nice thought
Excellent write up with supporting story
आपकी कमेन्ट के नीचे आपका नाम लिखे please…सभी पाठक आपके विचार जान पाए।
khub maja avi blog vachi…thankas
Good thought
very nice blog
Tamari vat nani nathi…vat khub moti kari Doctor
Jivan ki Daud…very good.
सिर्फ कहानी नहीं है पूरा जीवन है। एक सतत प्रक्रिया है।