Brightness is not payable

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 यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।

यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥
श्रीमदभगवद्गीता, श्लोक१२ ॥ पुरुषोत्तम योग १५॥

जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशमान करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो। आज तेज की ही बात करते हैं। तेज के कितने समानार्थी शब्द हैं, दीप्ति, ज्योति, प्रकाश और चैतन्य। मनुष्य में जो तेज है उसे हम चैतन्य कहते हैं। मतलब चेतना-जागरुकता..! जो प्रगट होता हैं वो तेज है, प्रकाश हैं। साथ ही मनुष्य के भीतर जो प्रकाशित हो उठता है उसे हम चेतना या ज्ञान भी कर सकते हैं। उससे ही तो मनुष्य की दैदीप्यमान आकृति बनती हैं।

Brightness

संस्कृत भाषा शब्दों की जननी हैं। एक-एक शब्द की अपनी पहचान हैं। गीता में भगवान के वचन हैं, ईश्वर क्या हैं ? उसकी विशद बातें गीता में हैं,भगवानने उपर्युक्त श्लोक में कहा: सूर्य-चंद-अग्नि में स्थित तेज मैं ही हूं। भगवान हमें व सर्व जीवको अपना अंश भी बताते हैं। मतलब हमारें भीतर जो ज्ञानरुप तेज हैं वो ईश्वर ने ही प्रदीप्त कीया हैं। जो हमारी दीप्ति प्रकट होगी वो भी ईश्वर की कृपा से हैं। ईश्वर ही तेज के उद्गम है और अंत भी..!

अब हम बात करते हैं हमारे तेज की। मनुष्य के रुप में हम जो ज्ञान या अनुभव प्राप्त करते हैं उससे हमारी पहचान बनती हैं। मतलब हम एक छोटा-सा तेज व प्रकाश से भरा दिपक हैं। मैं बाह्य प्रकाश की बात नहीं करता। अपने रंग-ढंग और खूबसूरती के बारें में इसमें कुछ नहीं लिखता। इसमें अपने भीतर के तेज के बारें में कुछ लिखता हूँ।

संसार में हरेक व्यक्ति को अपना खुद का तेज पूंज हैं।

सबके भीतर एक आग हैं,

कुछ करना है, कुछ बनना हैं..!

अपने लिए अपनों के लिए,

कुछ सिखना हैं, कुछ सिखाना हैं।

मेरे द्वारा भीतर से कुछ बहना चाहिए..!

कुछ आवाज बनकर या सृजन बन कर..!

अपने लिए..अपनो के लिए।

अपने खुद के आनंद के लिए !!

फिर किसी ओर के लिए भी कुछ बहता हैं, प्रकट होता हैं। संवेदना बनकर या प्रेम की अप्रतिम सुवास बनकर। कुछ तो प्रगट होना चाहिए। मेरे भीतर का तेज स्वयं ईश्वर का अंश हैं। ये थोडे-बहुत तो पराक्रम दिखा सकता हैं। मेरे लिए या सबके लिए। जन्म की पहेली क्षण से हम बाह्य प्रकाश के संपर्क में आते हैं। जन्म को हम प्रकाश में आना भी कह सकते हैं। जब हम विध्यमान बोलते हैं, तब सहज ही तेज की मौजूदगी होगी। मतलब हम तेज से संवृत हैं। माँ के पेट में भी हम उसकी चेतना से संवृत थे। तेज से ही हमारा नाता हैं। हमारें भीतर उठती धडकनें भी तेज से ही सम्बद्ध हैं। सोंसो का आवागमन भी ईश्वर की अलौकिक तेज संरचना ही तो हैं। 


हमारे शरीर में हरदम दौडता रहता है..तेज !! हमारी प्रेरणा और गति भी तेज से ही संभव हैं। रुधिर के कणों में फैला तेज हजारों नाडीओं से बहता हैं। कब तक हैं तेज ? जबतक है जान तब तक। जीवन पर्यंत हम इस तेज के साथ जी रहें हैं। इस मृत्युपर्यंत के संबंध से ईश्वर कुछ करवाना चाहता हैं। शायद जीवन को तेजोमय बनाना चाहता होगा ! तेज का मूलभूत गुणधर्म बांटना हैं। जो खुद प्रकाशित हैं वो जरूर फैलेगा। तेज का स्वभाव ही फैलना है। शायद ईश्वर हमें फैलना या कुछ बांटना सिखाना चाहते हैं! छोटे से तेजपूंजबनकर..कर्तव्य का निर्वहन करते-करते हमें भी दीप्तिमान स्थापित होना हैं। ईश्वर की ये लाज़वाब परंपरा के वाहक बनें हम..!

हमें किसीके तेज को बूझा नहीं सकते..कम भी नहीं कर सकते। इस हरकत से बचना ही तेजोद्भव हैं। तेज उधार नहीं मिलता, तेज खरीदा भी नहीं जा सकता। चैतन्य की कोई दुकान होती है भला !!

Innerly think of your brightness 🔅
I’m only questioner ? I’m not conclusioner.

Your ThoughtBird.🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav.
Gandhinagar,Gujarat.
INDIA.
dr.brij59@gmail.com
9428312234

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