संबंधो की गरिमा सहज-सरल नहीं हैं।
अच्छे रिश्ते-संबंध निभाना भी एक उमदा मानवीय वर्तन हैं।
ईश्वर जो चाहते हैं वो…स्नेहबंधन !!
संबंध का निर्माण होना बायोलॉजी पर सबसे ज्यादा निर्भर हैं। स्त्री-पुरुष के स्नेहबंधन से परिवार व समाज की परिकल्पना आकारीत हुई। साथ कईं रिश्तो का जन्म हुआ। ये सामाजिक ढाँचे को बनाए रखने के लिए जरुरी भी हैं। ये युगों से चली आ रही प्रक्रिया हैं। संबंधों की ये ईन्द्रझाल इतनी फैली हुई हैं की मनुष्य चाहकर भी इससे विरक्त नहीं हो सकता। जन्म से सारे बंधनों का झुडाव और उसको निभाते-निभाते चलते जाऩा..!
शायद हम-सब इसे जिंदगी कहते हैं। ये एक बंधन हैं, अब दूसरे बंधन की बात छेडता हूं।
एक लगाव संबंध में परिणमित होता हैं। इन सब अनजान हरकतों को चलानेवाला भी ईश्वर ही हैं। उनकी मर्जी, उनकी करामात और उनकी ही लीलामय संभावनाएं..! “कोई मिल गया” की एक कहानी आकारित होती हैं। साथ ही उस अनोखे संबंध की कहानी का “कब तक” और ” जब तक हैं जान” तक का सफर भी शायद वो ही तय करते हैं। इश्वर संबंध स्वरुपा हैं। इश्वर ही सृष्टि में स्नेह साम्राज्य के राजा हैं। उनकी मर्जी से चलने वाला हवा का झोंका भी प्रेमवश बंधन का ही रुप हैं।
एक मत ऐसा भी हैं कि ईश्वर का काम तो झोडना हैं। मिलित्व का निमित्त इश्वर बनते हैं। लेकिन उस मिलाप का…उस बंधन का…उस संबंध की गरिमा को बनाएं रखने का दायित्व हमारा भी हैं। इस विचार से शायद में सत्य के ठीक-ठीक नज़दीक हूँ। सो प्रतिशत का दावा करने वाला मैं कौन होता हूं ? मैं ये लिख रहा हूँ…यह भी तो एक इत्तेफ़ाक ही हैं। इसमें भी कोई बंधन जरुर कारणभूत होगा। शायद ईश्वर की अदृश्य करामात भी कारणभूत होगी। जो कुछ भी हो… लेकिन मुझे वो जीने का अद्भुत पागलपन देती हैं, वो सत्य हैं। इसे पढ़कर कोई भीतर से निहाल हो जाता हैं तो मैं भी निहाल !!
संबंध को निभाना मतलब अपने भीतर से शून्य हो जाना। अपनी पसंद या अपना ममत्व न टीके तब-तक का एक बेहतरीन पडाव संबंध हैं। मनुष्य के रुप में मेरा ह्रदय उल्लास से भरा रहे, मेरा वर्तन मेरा न होकर दूसरें की खुशी का कारण बने, तब एक संबंध बडी नाज़ुकता से अंकुरित होता हैं। दुनिया आज भी स्नेहबंधन का स्वीकार बड़ी लाजवाब रीत से करती हैं। जो सत्वशील हैं, वो ही आधारशिल हैं। जो जीवनमूलक है वो संबंध ही मानवीय हैं। ऐसे संबंधों की कहानियाँ अच्छी लगती हैं। शायद ऐसी कुछ कहानीओं के पात्र में जीना भी हैं। हम सब जानते हैं यही सत्व हैं। यही जीवन का अद्भुत आनंद भी हैं। हम क्यों इससे दूर हैं वो हम अच्छी तरह जानते हैं। भहाभारत के सभापर्व में दुर्योधन के द्वारा बोले गए शब्द ठीक बैठते हैं इसलिए लिखता हूं। “जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति, जानामि अधर्मम् न च मे निवृत्ति।” धर्म और अधर्म मैं सब जानता हूँ। लेकिन मुझे जो करना है वहीं मैं करूंगा।
दोस्तो, ईश्वर ही प्रेमस्रष्टा हैं, वो ही बंधन और मुक्ति भी…! हम तो इतनी ईच्छा व्यक्त करें की हमारे भीतर ईश्वर की मर्जी पलती हैं। और उनकी मर्ज़ी के हम निमित्त !! जब-जब विश्व प्रभावित हुआ है तब ऐसी संबंध कहानियाँ प्रकट हुई हैं। संसार में “नटखट कान्हा” का प्रगटन कुछ इसी पारंपरा का संचरण तो नहीं ?!
शायद, संबंधपिता कृष्ण का सृष्टि में प्राकट्य ईसी स्नेहबंधन की स्थापना के लिए तो नहीं हुआ था ?!
हम तो धर्मसंस्थापना के कारण ही समझते हैं !!
Nice